Saturday 29 April 2017

अप्रैल2017 अंक

आपत्ति- कुरआन में स्थान पर हज़रत मुहम्मद स0 को ईश्वर दूत न मानने वाले ............को मार डालने और नष्ट कर दने का अहवान और दूसरों को लड़ाने की खुदा की इच्छा का वर्णन है।


उत्तर- ऐसा प्रतीत होता है आप उन लोगों के प्रचार से प्रभावित हो गये हैं जिन्होंने कुरआन मजीद को या तो पूरा नही पढ़ा है या जान बूझ कर कुछ भागों को अनदेखा किया है। पवित्र कुरआन आपके पास हैं यदि आपने ध्यानपूर्वक उसका अध्ययन किया होता तो इतनी भयानक गलतफहमी नही होती। कुरआन तो अपने अनुयायियों से कहता है कि इन्कार करने वालों से कहा दो........तुम्हारे लिये तुम्हारा धर्म, मेरे लिये मेरा धर्म (109ः6) कुरआन का कथन है कि ..धर्म में जबरदस्ती नही की जा सकती। (2ः256)। इन्सानी जान को अल्लाह ने आदरणीय ठहराया है। कुरआन नेक बन्दों के गुण बयान करते हुए कहता है कि वह उस जान को जिसे अल्लाह ने आदरणीय ठहराया है, बिना हक के हलाक नही करते और न बलात्कार करते हैं और जो कोई ऐसा करेगा, किये का दण्ड पायेगा। (25ः68)। यही सिद्धान्त विस्तार से एक दूसरे स्थान पर देखिये....जो किसी की हत्या करे, बिना कि उसने किसी की हत्या की हो अथवा पृथ्वी पर उत्पात किया हो, मानो उसने समस्त मानव जाति की हत्या की और जिसने किसी की जान बचाई, मानो उसने सारे मुनष्यों की रक्षा की। इन लोगों के पास हमारे पैगम्बर स्पष्ट आदेश लेकर आये परन्तु इसके बाद भी इसे अधिकतर ऐसे हैं जो पृथ्वी पर सीमाओं का उल्लघंन कर जाते हैं (5ः32)। युद्ध की आज्ञा कुरआन केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही देता है.......जिन (आस्तिकों) के विरूद्ध युद्ध किया जा रहा है। उन्हें (अपने बचाव में) युद्ध की अनुमति दी जाती है क्यांेकि उन पर अत्याचार हुआ है और ईश्वर उनकी सहायता करने में निसन्देह समर्थ है। यह वो लोग है जो निर्दोष अपने घरों से निकाले गये थे। उनका अपराध केवल यह था कि ये अल्लाह को अपना पालनहार कहते थे। (23ः39,40)।  जब आस्तिकों पर आक्रमण हो तो उत्पात को समाप्त करने क ेलिए युद्ध की अनुमति है लेकिन युद्ध के समय भी सीमाओं का उल्लघंन न करने का आदेश हैं जैसे ही अत्याचारी अपने अत्याचार से रूक जायें और उत्पात से रूक जाने का आश्वासन दें तो युद्ध तुरन्त रोक देने का आदेश है। ...जो लोग उनसे युद्ध करते है। उनके ईश मार्ग में युद्ध करो मगर (युद्ध करने में) सीमाओं का उल्लघंन करो। (अर्थात तुम अत्याचार पर न उतर आओ) क्योंकि ईश्वर सीमा उल्लघंन करने वालों को पंसद नही करता। इन अत्याचारियों को जहां पाओ कत्ल करों और जहां से उन्होंने तुम्हें निकाला है, वहां से उन्हें निकाल बाहर करों क्यांेकि यह उत्पात हत्या से अधिक बुरा है। तुम उनके निरन्तर युद्ध किये आज यहां तक कि उत्पात बाकी न रहे और दीन केवल ईश्वर के लिये हो। परन्तु अगर वह (उत्पात करने और दीन के विषय में तुम पर जबरदस्ती करने से) रूक जाये तो यह जान लो कि दण्ड अत्याचारियों के सिवा किसी और के लिये नही है। (2ः190, 191,193)। युद्ध का आदेश अथवा अनुमति केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में हे। कुरआन मजीद में युद्ध से सम्बन्धित जितनी आयतें हैं उन्हें भ्रम फैलाने वाले लोग सन्दर्भ से काट देते हैं और केवल वह अंश निकालकर सामने रखते है जहां युद्ध से बचने का आदेश है। यदि वह सन्धि की ओर अग्रसर हों तो तुम भी उनकी ओर झुक जाओ और फिर यदि उनका आया तुमसे विश्वासघात करने का भी होगा तो (तुम इस संभावना पर सन्धि से न हटना) ईश्वर तुम्हारे लिये पर्याप्त है (8ः61,62)। और अगर वह तुम्हें छोड़ रहें और तुमसे झगड़ा न करें और तुम्हारी ओर सन्धि का सन्देश भेजें तो ईश्वर ने उन पर (हाथ उठाने का) तुम्हारे लिये कोई मार्ग नही रखा (4ः90)। आप यह कहते हैं कि मानने वालों को मार डालने और नष्ट करने का आदेश है। इसके विपरीत तुमसे यदि (युद्ध के वातावरण) में मुशरिकीन में से कोई व्यक्ति तुमसे शरण की प्रार्थना करे तो उसको शरण दो यहां तक कि वह अल्लाह का कलाम सुन समझ ले फिर उसके शान्ति के स्थान पर वापिस पहुंचा दो। ऐसा इस कारण से है कि यह लोग (इस्लाम की) वास्तिविकता से अनभिज्ञ हैं (9ः6)। जब तक युद्ध ज़रूरी न हो जाये कुरआन अपने अनुयायियों को संयम रखने को प्रोत्साहित करता है। विरोधी अगर कष्ट भी पहुंचाये तो बदले की अनुमित होते हुए भी धैर्य रखना उचित है। और यदि तुम लोग बदला लेना चाहते हो तो (अधिक से अधिक) उतना ही बदला जो जितना कष्ट तुम्हें दिया गया है लेकिन अगर धैर्य रखो तो यह संयम रखने वालों के प्रति बहुत उचित है (16ः126)। तुम (विरोधियों की यातनाओं पर) संयम रखो और तुम्हारे धैर्य तो ईश्वर की ही देन है और यह लोग जो (तुम्हारे विरोध में) षडयन्त्र रचते हैं उनसे निराश न हो क्योंकि जो लोग परहेजगारी ग्रहण करते हैं और (जो लोगों के साथ) सद्व्यवहार करते है।, ईश्वर उनका मित्र है (16ः127,128)। कुरआन आस्तिकों को आदेश देता है कि न्याय का पक्ष शत्रुओं के मामले में भी हाथ से न छूटे। हे ईमान वालों, अल्लाह के लिये पूर्ण नियमित एवं न्याय के साक्षी बनो और किसी कौम की शत्रुता तुम्हें इस बात पर मजबूर न कर दे कि तुम भी (उसके साथ) अत्याचार करने लगो। न्याय से काम लो क्योंकि यह परहेजगारी के अत्यन्त समीप है और अल्लाह से डरते रहो (5ः8)। कुरआन ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि यह लोग जो कुछ (तुम्हारे विषय में) कहते हैं उसे हम खूब जानते है। और तुम उन पर जबरदस्ती करने वाले नही हो। (तुम्हारे कार्य तो यह है कि) जो व्यक्ति हमारे प्रकोप से डरता है उसको कुरआन सुना-सुना कर समझाते रहो। (50ः45)। तुम उपदेश किये जाओ तुम्हारा काम सिर्फ उपदेश देना है। तुम उन पर दरोगा तो नही हो। (88ः21,22)। क्या तुम (इस बात के लिये) लोगों पर जबरदस्ती कर सकते हो कि वह ईमान ले ही आये (10ः99)। (हे ईश दूत) तुम्हारी जिम्मेदारी तो केवल (बात को) पहुंचा देना है और हिसाब लेना हमारी जिम्मेदारी है (13ः40)। बात पहुंचाने के लिये भी नम्रता से बातचीत करने का आदेश दिया गया है। अपने रब से मार्ग की ओर युक्ति से और अच्छे उपदेश से बुलाओं और उनसे सभ्यता से ही तर्क करो (16ः125)। कुरआन की इसी युद्ध व शान्ति सम्बन्धी नीति पर ईशदूत स0 अपने जीवन में पूर्णतया कार्यरत रहे। मक्के से मदीने की दूरी 500 किमी. है लेकिन मक्के से मुशरिकीन (बहुदेव वासियों) से जो तीन युद्ध हुए हैं वह मदीने और उसके आस पास हुए जबकि मक्के के लोगों ने उन पर आक्रमण किया था। मक्के की विजय के अवसर पर उस समय तक मुशरिकीन के सरदार अबूसुफियान के घर शरण लेने वाले हर शत्रु के लिये क्षमा की घोषणा की गयी। जब इस्लामी सैनिक विजेता के रूप में मक्के में प्रवेश कर रहे थे तो सेना के ध्वजारोही ने यह नारा लगाया कि ‘आज रक्तपात का दिन आ गया है’ ईश्दूत स0 का शुभ मुखमण्डल क्रोध से तमतमा उठा। आदेश दिया कि नारा लगाने वाले से ध्वज लेकर चलने का सम्मान छीन लिया जाये और आपने इस्लामी सेना को यह नारा दिया कि ‘आज दया करने का दिन है।’

गत 1400 वर्षीय इतिहास में आज तक इस्लामी बहुसंख्यक देशों में गैर मुस्लिम नागरिक शान्ति से रहते आये हैं। वहां के प्रशासकों ने कभी उनकी गर्दन उड़ाने के आदेश पारित नही किये। दिवाकर साहब, आप भी तो मुस्लिम देशों की यात्रा कर चुके हैं, वहां आपको प्यार मिला या आपकी गर्दन उड़ायी गयी ? डेढ़ हजार साल में संसार के किसी मुस्लिम ज्ञानी या साधारण व्यक्ति को कुरआन में यह उपदेश नही आया कि गैर मुस्लिम की हत्या कर डालो, अब आप उन्हें बताना चाह रहे है कि तुम्हें ईश्वर ने हत्या करने का आदेश दिया है ? कृपया इस ओर ध्यान दें कि आप क्या कह रहे हैं।
कुरआन ने जिन आवश्यक परिस्थितियों में युद्ध की अनुमति दी है मैंने संक्षेप मे आपके समक्ष रख दी है अगर अत्याचार और उत्पात करने वालों से आत्मरक्षा न की जाये तो सम्पूर्ण पृथ्वी अत्याचारियों और आतंकवाद से भर जायेगी। उसकी वकालत आपका जहन करता है तो करे, कुरआन के स्वामी का दृष्टिकोण यह हरगिज नही हो सकता।









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